भारत की संस्कृति
हेमंत शेष
देश के रूप में भारत
का नामकरण
सब
जानते हैं शब्द- 'इण्डिया' विदेशियों द्वारा यहाँ की एक प्रमुख नदी इंडस
(सिंधु) के नाम पर गढ़ा गया है । चीनी लोग एक
समय भारत को इसके एक प्राचीन चीनी नाम ‘शिन-तुह’ (या ‘सिंधु’) से जानते थे । ऋग्वेद (VIII. 24. 27) में इस देश को ‘सप्त-सिंधु’ या 'सात नदियाँ' भी कहा गया है । यह नाम निस्संदेह ‘अवस्तान वेंडीदाद’
(ज़र्थ्रुस्त ग्रन्थ) में पाए जाने वाले ‘हप्त हिंदू’ शब्द से मेल
खाता है। पार्सेपोलिस और ‘नक्श-ए-रुस्तम’ में, डेरियस के प्रसिद्ध शिलालेखों में,
सिंधु और उसके अपशिष्टों से सिंचित संपूर्ण क्षेत्र को केवल ‘हिदू’
कहा गया है । (पर्सेपोलिस शहर का यूनानी नाम था जिसका अर्थ है -" फारसियों का
शहर " जब कि ‘नक्श-ए-रुस्तम’
पहले फारसी साम्राज्य, अचमेनिद के राजवंश (लगभग 550-330 ईसा पूर्व) का वह क़ब्रिस्तान है, जिसमें
चट्टान की सतह पर ऊँचे नक्काशीदार चार विशाल मकबरे बने हैं )
लगभग
पूरे भारत देश की पुनर्खोज ईसा पूर्व चौथी शताब्दी के आसपास पूरी हो चुकी थी । उस
काल का साहित्य,
यूनानी और भारतीय दोनों, न केवल दक्षिण में
पांड्य-साम्राज्य से, बल्कि ‘ताम्रपर्णी’ या सीलोन द्वीप (आज
के श्रीलंका) के अस्तित्व से भी परिचित था । तब लोगों को उत्तर में हिमालय से लेकर
दक्षिण में समुद्र तक फैले इस क्षेत्र के लिए एक ‘कॉमन’ शब्द की आवश्यकता महसूस हुई । यह शब्द था ‘जम्बूद्वीप’ जिसका प्रयोग सबसे पहले बौद्ध साहित्य में आया ।
‘जम्बूद्वीप’ को चार महाद्वीपों या चार महाद्वीपों में से एक माना गया जिनमें वर्तमान का वह भारत भी शामिल है जिसके
मध्य में सिनेरु (सुमेरु) पर्वत है । इस तरह ‘जम्बूद्वीप’ शब्द बौद्धकाल की उपज है ।
पर इस बिंदु पर कोई एक निश्चित मत होना मुश्किल है कि इस नाम ‘जम्बूद्वीप’
का लिखित काल-क्रम इतिहास (या क्रोनोलोजी) रही हो , पर सम्राट
अशोक के लघु शिलालेख संख्या-1 में इस महान्
सम्राट द्वारा शासित विशाल देश का नाम ‘जम्बूद्वीप’ ही उत्कीर्ण है । महाकाव्यों और पुराणों में जम्बूद्वीप को
सात समुद्रों से घिरे सात संकेंद्रित द्वीपों में से एक के रूप में वर्णित किया
गया है । इन सात द्वीपों में से ‘जम्बूद्वीप’ का उल्लेख विभिन्न स्रोतों में सबसे
अधिक किया गया है और यह अपने संकीर्ण अर्थ में भारतीय प्रायद्वीप के रूप में ही जाना जाता था ।
भारतीय संस्कृति
भारतीय-संस्कृति
दुनिया की सबसे पुरानी संस्कृतियों में से एक है । मानव-इतिहास
की दूसरी पुरानी संस्कृतियाँ : मिस्र, यूनान, रोम,
मेसोपोटामिया, सुमेरिया वगैरह तो अनेक कारणों से पूर्णतः खत्म हो गईं या अपना
मौलिक रूप बचा न सकीं, इनमें से कुछ के तो अब सिर्फ़ धूमिल निशान ही बचे हैं । उर्दू
शायर इकबाल का प्रसिद्ध शे’र है- “कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों
रहा है दुश्मन, दौर-ए-ज़मां हमारा " हैरानी की बात है कि भारतीय-संस्कृति ‘सनातन’ है, किन कारणों से, जो आज भी कमोबेश पहले जैसी सी ही ज़िंदा है । पुराने
समय से इसके बुनियादी उसूल वही हैं, जो शुरुआत में थे ! वे ज्यादा
क्यों नहीं बदले ? ग्रामीण भारत में ग्राम-पंचायतें,
जाति-व्यवस्था और संयुक्त परिवार प्रथा वगैरह आज भी कैसे जीवित हैं
? राम, कृष्ण, बुद्ध,
नानक, कबीर और महावीर की शिक्षाएँ आज भी कैसे, किन रूपों में
ज़िंदा हैं और अनेक लोगों के लिए प्रेरणा का ज़रिया हैं । अध्यात्म, प्रकृति के प्रति सम्मान, कर्म और पुनर्जन्म में
विश्वास, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, पवित्रता, अपरिग्रह
वगैरह जैसे मूल्य और मान्यताएं क्यों इस
देश के अनेक लोगों को प्रेरणा देते आये हैं ?
सभी को ज्ञात है- भौतिक विकास ‘सभ्यता’ या सिविलाइज़ेशन की परिभाषा में गिना जाता है जबकि जीवन जीने के तरीके, वेश
और खानपान भाषा, धर्म, कला, रीति-रिवाज़, परंपराएँ, संगीत, साहित्य आदि संस्कृति के दायरे में आती
हैं । अगर वैज्ञानिक आविष्कार, ‘सभ्यता’
के क्षेत्र में गिने जाएंगे तो समाज का वैज्ञानिक दृष्टिकोण ‘संस्कृति’ का भाग होगा
। भौतिक विकास की अपनी सीमा है- भौतिक
प्रगति एक सीमा तक ही मुमकिन है जब कि संस्कृति की जड़ें कहीं गहरी हैं, संस्कृति
वह है- जो हम में अनुस्यूत है, जब कि सभ्यता वह है- जो हमारे पास है । संसार की कई सभ्यताएं खत्म हो
गईं, जबकि भारतीय-संस्कृति आज भी मौजूद है, क्योंकि यहाँ विकास का आधार आध्यात्मिकता रही, सिर्फ
भौतिकवाद नहीं ।
संस्कृति की कुछ खास-खास
बातें :
1. ब्रह्माण्ड के बारे में भारतीय दृष्टि
पारंपरिक
भारतीय-संस्कृति का केन्द्रीय बल ‘आध्यात्मिकता’ या धर्म पर है, यह नैतिक-मूल्यों को जीवन के
उच्चतम पायदान पर रखती है, इसीलिए स्वभावगत सादगी, न्यूनतम आवश्यकता वाली सरल
जीवन-शैली, सामाजिक भाईचारे और सांस्कृतिक आदान-प्रदान और सहिष्णुता पर जोर देती
है । भारतीय दृष्टि ब्रह्मांड को केवल भौतिक कणों संग्रह नहीं मानती , बल्कि एक आध्यात्मिक, चक्रीय और चेतन व्यवस्था के
रूप में देखती है, जो परम वास्तविकता (ब्रह्म) से उत्पन्न
होती है और उसमें विलीन होती है, जिसे विभिन्न देवी-देवताओं
और तत्वों के माध्यम से समझा जा सकता है। ब्रह्मांड, परम
सत्य (ब्रह्म) की अभिव्यक्ति है, जो चक्रीय है और इसमें सृजन
(ब्रह्मा), पालन (विष्णु) और संहार (शिव) की प्रक्रियाएँ
शामिल हैं, जो भौतिक तत्वों (पृथ्वी, जल,
अग्नि, वायु, आकाश) से
घिरे एक अण्डाकार रूप (अण्डकटाह) में है, जहाँ माया के कारण
चेतना जगत को वास्तविक मानती है, जबकि यह सब परब्रह्म की
लीला है, जिसमें अंतरिक्ष और समय आपस में गुंथे हुए हैं।
भारतीय-संस्कृति
इंसान को भगवान् द्वारा बनाए गए ब्रह्मांड
की ‘एक विलक्षण रचना’ के रूप में तो देखती ज़रूर है, पर यह एंथ्रोपोसेंट्रिक (मानव-केंद्रित) नहीं है
। पश्चिम के विपरीत भारतीय-संस्कृति ये नहीं मानती पृथ्वी और इसकी संपदा का मालिक सिर्फ
मानव ही है, या सृष्टि के सब संसाधन मानव-मात्र
के उपभोग के लिए हैं ! भारत का साधारण ग्राम्य
मन-मानस सृष्टि के सभी तत्वों, चाहे वे सजीव हों या निर्जीव, को परमपिता ईश्वर का ही रूप मानता है । इसलिए, यह
भगवान की बनाई हर रचना का सम्मान करता है और सह-अस्तित्व के आदर्श को महत्व देता
है । हिन्दुस्तानी नज़रिया, इंसान को प्रकृति और ईश्वर से एक
अविच्छिन्न कड़ी के रूप में जोड़ता है । क्या
यही सत्यम्-शिवम-सुंदरम् का भारतीय विचार नहीं
है ? सत्यम् शिवम् सुंदरम्" का अर्थ है सत्य ही कल्याणकारी (शिव) है, और जो कल्याणकारी है वही सुंदर है जो सत्य,
कल्याणकारी और सुंदर है, वही ग्राह्य या
स्वीकार करने योग्य है ।
भारतीय
दर्शन और संस्कृति, समस्त संसार से एक सहज
तालमेल / समन्वय बिठाने की पक्षधर है । भारतीय-संस्कृति
मानती है कि प्रकृति में मौजूद प्राकृतिक ब्रह्मांडीय व्यवस्था ही मनुष्य की नैतिक
और सामाजिक व्यवस्था की नींव है ! यद्यपि
सृष्टि का केंद्र मानव नहीं है वह तो उसका एक अकिंचन अणु-मात्र है, फिर भी यहाँ अगर मनुष्य के अंदरूनी तालमेल को बाहरी संतुलन
का प्रतिरूप माना जाता है तो भारत का दर्शन यह भी मानता है- बाहरी व्यवस्था और
सुंदरता स्वाभाविक रूप से अंदरूनी तालमेल से ही आएगी; इसलिए भारतीय-संस्कृति भौतिक और आध्यात्मिक दोनों
छोरों का संतुलन करते हुए जीवन में उन्हें एक साथ उतार लाने की कोशिश करती
है | यहाँ ‘पुरुषार्थ’ की भारतीय-अवधारणा की
बात करना ज़रूरी है ! पुरुषार्थ की भारतीय अवधारणा मानव-जीवन के
चार प्रमुख लक्ष्यों को संदर्भित करती है: धर्म (नैतिकता और कर्तव्य), अर्थ
(समृद्धि और आर्थिक मूल्य), काम (इच्छाएं, सुख और प्रेम), और मोक्ष (मुक्ति और आध्यात्मिक लक्ष्य)
। इन चारों को एक साथ 'पुरुषार्थ चतुष्टय' कहा जाता है, और इनका उद्देश्य एक संतुलित, पूर्ण और उद्देश्यपूर्ण जीवन जीना है ।
3. सहनशीलता : मानवीय-मूल्य के रूप में
भारत
में अलग-अलग धर्म, शांति से रहते आये हैं और सभी एक-दूसरे पर असर भी डालते रहे हैं
– हालांकि जबरन धर्मान्तरण की अस्वाभाविक गतिविधियों से बीच-बीच में इस ‘समन्वय’-मानसिकता
पर कुछ नकारात्मक असर पड़ा ज़रूर है पर भारत ने अपना धर्म किसी पर नहीं थोपा । उलटे
भारतीय-संस्कृति अलग-अलग नज़रियों, व्यवहारों, रीति-रिवाजों और संस्थाओं को अपने भीतर ढालती और अपनाती रही है । यह ‘एकजैसापन’
लाने के लिए अपने से अलग-धर्मों के मूल्यों और मान्यताओं पर हवी होने या दबाने की कोशिश नहीं करती । भारतीय-संस्कृति का
आदर्श वाक्य ही है- ‘विभिन्नता में एकता’ !
4.
निरंतरता और स्थायित्व
भारतीय-संस्कृति
के कुछ उसूल तो आज भी व्यावहारिकता में वैसे ही प्रचलित हैं, जितने वे शुरू में थे । भारतीय-संस्कृति
की एक खास बात है– इसका लगातार गतिशील रहना । चूंकि भारतीय-संस्कृति
कुछ उच्चतर मानवीय मूल्यों पर आधारित है, इसलिए इसका निरंतर
‘विकास’ देखा जा सकता है । कई सदियां बीत गईं, कई
बदलाव हुए, कई विदेशी हमलावरों का सामना करना पड़ा, लेकिन भारतीय-संस्कृति की रोशनी आज भी चमक रही है । कोई इसके इतिहास को
इजिप्ट, ग्रीस, रोम, सुमेर, बेबीलोन और सीरिया जैसी संस्कृतियों की तरह बुझा नहीं सकता क्योंकि यह अभी भी ‘सजीव’ है और निरंतर
निर्माण के दौर में है । भारत पर कई बार
बड़े बड़े राजनैतिक हमले हुए, यहाँ कई शासक बदले, कई कानून पारित हुए लेकिन आज भी पारंपरिक
संस्थाएं, धर्म, महाकाव्य, साहित्य, दर्शन, परम्पराएं वगैरह
बदस्तूर ज़िंदा हैं । राजनैतिक हालात और शासन
उन्हें पूरी तरह से बदल नहीं पाए । भारतीय-संस्कृति
की स्थिरता आज भी अपने आप में बेजोड़ है क्यों कि भारतीय-संस्कृति ने हमेशा ‘निरंतरता
के भीतर बदलाव’ के उसूल का स्वागत किया है ।
5. अनुकूलन की क्षमता
भारतीय-संस्कृति
को अमर बनाने में अनुकूलन की क्षमता का बहुत बड़ा योगदान है। अनुकूलन समय, जगह
और समय के हिसाब से खुद को सामाजिक
सांस्कृतिक रूप से ज़रूरत के हिसाब से बदलने की प्रक्रिया है । यह लचीलापन किसी
भी संस्कृति की लंबी उम्र का एक ज़रूरी रहस्य
है । भारतीय-संस्कृति में ‘समायोजन’ की वह अनोखी खूबी है, जिसकी वजह
से भी यह आज तक अक्षुण्ण बनी हुई है । भारतीय परिवार, जाति,
धर्म और संस्थाओं ने समय के साथ खुद को बदला है । भारतीय-संस्कृति की
अनुकूलन क्षमता और तालमेल के गुण की वजह से, इसकी निरंतरता, उपयोगिता
और गति आज भी मौजूद हैं । डॉ. एस. राधाकृष्णन ने अपनी किताब, ‘भारतीय संस्कृति: कुछ विचार’ में, भारतीय-संस्कृति की
अनुकूलन के बारे में बताते हुए कहा है-“ सभी लोग
चाहे काले हों या गोरे, हिंदू हों या मुसलमान, ईसाई हों या यहूदी, भाई-भाई हैं और हमारा देश ही
पूरा ब्रह्मांड है । हमें उन चीज़ों के लिए भी सम्मान भाव रखना चाहिए, जो ज्ञान की
सीमाओं से परे हैं और जिनके बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है । चाहे धर्म हो भाषा हो या दर्शन भारत ने अपने
विचार दूसरों पर जबरन थोपने की कोशिश नहीं की
।” उन्होंने
भारतीय सभ्यता,
संस्कृति और परंपरा के बारे में अपने विचार प्रस्तुत करते हुए बताया कि भारतीय संस्कृति दुनिया की सबसे
प्राचीन और गौरवशाली संस्कृति है, जो आध्यात्मिकता, आत्म-खोज, और ज्ञान के एकीकरण पर केंद्रित है,
जो मानव चेतना को ऊपर उठाती है और हमें परम सत्य की ओर ले जाती है। स्वामी विवेकानंद को कौन भूल सकता है जिनके सन्देश का उनके शिकागो भाषण (1893) में निहित है, जहाँ उन्होंने "उठो, जागो और तब तक मत रुको जब
तक मंजिल प्राप्त न हो जाए" जैसे प्रेरक शब्दों से विश्व को भारतीय दर्शन और
सहिष्णुता का संदेश दिया, जिसमें सभी धर्मों के प्रति सम्मान
और युवाओं में आत्म-विश्वास जगाने पर जोर था, और उनका
प्रसिद्ध वाक्य है कि "सबसे बड़ा धर्म अपने स्वभाव के प्रति सच्चे रहना
है"
स्वीकार्यता
(एडापटेबिलिटी) भारतीय-संस्कृति की एक ज़रूरी खासियत है । भारतीय-संस्कृति ने अपने
हमलावर देशों तक की संस्कृतियों की अच्छाइयों या बुराइयों दोनों को अपनाया । भारतीय-संस्कृति
उस समुद्र की तरह है,
जिसमें कई नदियाँ बेआवाज़ आ कर मिल जाती हैं, ठीक उसी तरह सभी बाहरी जातियाँ भी भारतीय-संस्कृति
के संपर्क में आयीं और बहुत तेज़ी से हिंदुत्व में घुल-मिल गईं । भारतीय-संस्कृति ने
हमेशा दूसरी संस्कृतियों के साथ तालमेल बिठाया, सभी की
विविधताओं के बीच एकता बनाए रखने की इसकी क्षमता सबसे अच्छी है इस स्वीकार्यता के
कारण इस संस्कृति में जो भरोसा पैदा हुआ है, वह दुनिया के
लिए एक वरदान है । हममें हमेशा अलग-अलग संस्कृतियों की खूबियाँ हैं पर “वसुधैव कुटुम्बकम” का मंत्र तो भारतीय-संस्कृति की असल आत्मा है । भारतीय-संस्कृति
ने हमेशा विदेशी संस्कृतियों की चीज़ों को अपना कर और उनके साथ तालमेल बिठा कर खुद
को पुनर्नवा किया है । भारतीय-संस्कृति ने
विदेशी संस्कृति की काम की चीज़ों को अपनाने में हिचकिचाहट कभी नहीं दिखाई, चाहे
भाषा हो या संगीत । भारत ने
इस्लामी और अंग्रेज़ी दोनों संस्कृतियों की चीज़ों को भी अपनाया शायद इसलिए भी इसकी
निरंतरता, और उपयोगिता आज भी कायम है । इस संस्कृति की अनुकूलन क्षमता और आशु-ग्राह्यता ने इसे हर स्थिति में ज़िंदा
रहने की ताकत दी है। इसी खूबी की वजह से, विदेशी हमलों का
सामना करने के बाद भी भारतीय-संस्कृति कभी खत्म नहीं हुई । असल में, भारतीय सम्माज और संस्कृति ने विदेशी हमलावरों को करीब ला कर और उनसे
अपनापन बना कर उन्हें बहुत कुछ दिया ही नहीं, बल्कि उनसे
बहुत कुछ लिया भी । अन्य संस्कृतियों से भारत के संपर्क का
भारतीय कला,
भाषा, धर्म, वास्तुकला,
साहित्य और जीवन-शैली पर गहरा और द्विपक्षीय प्रभाव पड़ा है,
जिससे गांधार कला जैसी नई शैलियों का जन्म हुआ, यूनानी (हेलेनिस्टिक) प्रभाव के
कारण बुद्ध की मूर्तियों में यवन विशेषताओं (जैसे प्रभामंडल) का समावेश हुआ। भारतीय शैलियों (जैसे द्रविड़ शैली)
में अंकोरवाट जैसे मंदिरों का निर्माण हुआ, जो रामायण और महाभारत के
प्रसंगों को दर्शाते हैं । संस्कृत और पाली जैसी भाषाओं में शब्दों का आदान-प्रदान
हुआ, और बौद्ध धर्म का दक्षिण पूर्व एशिया और यूरोप के साथ
संपर्क जैसे महत्वपूर्ण सांस्कृतिक आदान-प्रदान हुए, जो
व्यापार और मिशनरियों के माध्यम से सदियों तक चले, जिससे एक
समृद्ध सांस्कृतिक मिश्रण तैयार हुआ है । रेशम मार्ग (Silk Route) व्यापार के साथ-साथ संस्कृतियों के आदान-प्रदान
का एक बड़ा माध्यम बना, जिससे मध्य एशिया और चीन में भारतीय
संस्कृति का प्रभाव पड़ा। अब योग और आयुर्वेद जैसी भारतीय प्रथाओं को वैश्विक
मान्यता मिली है , जिससे भारत से भी संस्कृतियों का वैश्विक
प्रवाह शुरू हुआ है ।
7. आध्यात्मिकता
भारतीय-संस्कृति
की आत्मा है- आध्यात्मिकता । यहाँ आत्मा और परमात्मा दोनों के अस्तित्व को शाश्वत सत्य माना गया है । इसलिए, इंसान
का आखिरी मकसद नश्वर सुख-सुविधा के लिए अंधाधुंध भौतिकता की ओर भागना नहीं बल्कि मनुष्य
जन्म का असल गंतव्य है- खुद को जानना और सर्वशक्तिमान ईश्वर के रहस्य को पाना । राधाकुमुद
मुखर्जी ने अपनी किताब ‘हिंदू सिविलाइज़ेशन’ में विश्लेषित किया है कि भारतीय-संस्कृति
ने,
जिसने अपनी वैयक्तिक खासियतों को बनाए रखा, पूरे
देश को धार्मिक एकता में इस तरह बांधा कि देश और संस्कृति को एक-दूसरे से अलग नहीं
माना गया और वे एक हो गए । देश संस्कृति बन गया और संस्कृति ही देश बन गयी ।” भारत देश ने भौतिक दुनिया
से परे,
आध्यात्मिक दुनिया का रूप ले लिया। जब ऋग्वेद के समय में भारतीय-संस्कृति
की शुरुआत हुई, तो यह समय के साथ अपनी आध्यात्मिक विचारों की
ताकत की वजह से यह भारत की सीमाओं से बाहर विदेशों तक जा पहुँची और वहाँ भी
स्थापित हो गई ।
8. धार्मिक ग्रन्थ
प्रमुख
धर्मों के सबसे बड़े ग्रंथ उनके मूल और सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक ग्रंथ हैं, हिंदू धर्म के लिए चारों वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद),
इस्लाम के लिए क़ुरान, ईसाई धर्म के लिए
बाइबिल (पुराना और नया नियम), बौद्ध धर्म के लिए त्रिपिटक
(सुत्तपिटक, विनयपिटक, अभिधम्मपिटक),
और सिख धर्म के लिए गुरु ग्रंथ साहिब, जिनमें इन
धर्मों के केंद्रीय सिद्धांत और शिक्षाएं हैं
। जैन धर्म के प्रमुख ग्रंथ, आचारांग सूत्र, सूत्रकृतांग सूत्र आदि हैं |
इन
किताबों ने आस्तिकता, आशावाद, ईश्वरवाद, त्याग,
तपस्या, संयम, नैतिक आचरण,
सच्चाई, 'सद्-विचार, सद्-वचन
और सद्-कार्य'. जैसी अनेक अच्छे विचारों को बढ़ावा दिया है । समाज में नैतिकता या
सामाजिक संतुलन बनाए रखने में हर धर्म की अपनी बड़ी भूमिका रही है !
9. कर्म और पुनर्जन्म
के बारे में विचार
भारतीय-संस्कृति
में कर्म (एक्शन) और पुनर्जन्म (री-बर्थ) की
धारणाओं का खास महत्व है । हमारे यहाँ ऐसा माना जाता है कि सद्कर्म करने से
पुण्य मिलता है और अगले जन्म में अच्छे कुल में जन्म लेकर मनुष्य सुखी जीवन बिताता है इसके
विपरीत बुरे कर्म करने वाला नरक में जाता
है, अगले जन्म में किसी निचले कुल में जन्म लेता है और आजीवन दुख झेलता है । उपनिषद् कहते हैं कि कर्म के फल का
सिद्धांत यही है कि इंसान जैसा कर्म करता है, वैसा ही फल पाता है । इसलिए
हर इंसान को अच्छे कर्म करने चाहिए, ताकि
उसका अगला जन्म बेहतर हो सके । अपने सभी
जन्मों में लगातार अच्छे कर्म करने से ही उसे मोक्ष मिलेगा, ‘मोक्ष’
का अर्थ है जीवन-मृत्यु और पुनर्जन्म के चक्र से छुटकारा । यह एक ऐसी अवस्था है
जिसमें आत्मा अपने सच्चे स्वरूप को पहचान कर सांसारिक बंधनों और दुखों से हमेशा के
लिए मुक्त हो जाती है । हिंदू धर्म (और अन्य भारतीय धर्मों में भी) मोक्ष-प्राप्ति को परम
लक्ष्य माना जाता है, जो परमात्मा के साथ एकात्म हो कर
शाश्वत आनंद और चिर शांति प्राप्त करने का साधन कहा गया है । कर्म-फल की यह धारणा सिर्फ़ उपनिषदों की ही नहीं, बल्कि जैन, बौद्ध वगैरह धर्मों में भी आयी है । कुछ इस
तरह पुनर्जन्म का मामला कर्म के सिद्धांत से जुड़ा है । पुनर्जन्म का असली कारण है-
पिछले जन्म में किए गए कर्मों का फल भोगना
। भारतीय-संस्कृति धर्मसम्मत आचरण या
नैतिक-कर्म करने पर ज़ोर देती है। ऐसा माना जाता है कि अपना कर्तव्य निभाना,
अपने अधिकार का दावा करने से ज़्यादा ज़रूरी है । इस तरह, समुदाय या परिवार की ज़िम्मेदारियों पर ज़ोर दे कर, भारतीय-संस्कृति
की यही दृष्टि व्यक्ति की निरंकुश आज़ादी और स्वायत्तता के बजाय एक-दूसरे पर सामाजिक निर्भरता को बढ़ावा
देती है ।
10. संयुक्त
परिवार का आदर्श
11. जातिप्रथा
भारतीय-संस्कृति
की एक और खासियत सामाजिक-स्तरीकरण है । भारत में जातियों की संख्या हजारों में है, जिसमें
लगभग 3,000 से 4,000 मुख्य जातियाँ और
25,000 से अधिक उपजातियाँ हैं, जो हर
इलाके में अलग-अलग संख्या और घनत्व में रहती हैं; हर क्षेत्र
में सैकड़ों जातियाँ पाई जाती हैं और 2027
की जनगणना में पहली बार जाति-आधारित डेटा भी शामिल किया जाएगा, जिससे सटीक संख्या पता चलेगी। भारत की सामाजिक-संरचना उन हज़ारों जातियों
और उपजातियों से बनी है, जो जन्म के आधार पर किसी व्यक्ति का
सामाजिक ‘दर्जा’ या स्टेटस तय करती हैं ।
ई.ए.एच. ब्लंट के अनुसार, "जाति, अंतरजातीय या अंतर-विवाहित समूहों का एक संग्रह
है, जिसका एक सामान्य नाम होता है, जिसकी
सदस्यता वंशानुगत होती है और इसके सदस्यों पर सामाजिक रूप से एक साथ रहने पर कुछ
प्रतिबंध और नियम लगाए जाते हैं । इसके अधिकाँश सदस्य या तो पारंपरिक व्यवसाय करते
हैं और एक समुदाय के
रूप में कुछ कॉमन मूलभूत रीति-रिवाजों
से बंधे होने की मानसिकता से जुड़े होते हैं ।” इस प्रकार, भारतीय-संस्कृति
में जाति-प्रथा विश्व में अपनी तरह की अकेली,
सामाजिक स्तरीकरण की एक प्रणाली विशेष है । भारत की जाति व्यवस्था का गहन अध्ययन
करने वाले प्रमुख भारतीय विद्वानों में एम.एन. श्रीनिवास (‘संस्कृतीकरण’ और ‘प्रमुख
जाति’ की अवधारणाओं के लिए प्रसिद्ध), बी.आर. अंबेडकर (जाति की
उत्पत्ति और कार्यप्रणाली पर एक प्रमुख सिद्धांतकार), जी.एस.
घुरये (एक बड़े समाजशास्त्री) और इरावती कर्वे (एक सामाजिक
मानवविज्ञानी) शामिल हैं । इन विद्वानों ने, डेविड वाश ब्रुक
और दीपांकर गुप्ता जैसे अन्य विद्वानों के साथ मिल कर , ऐतिहासिक,
नृवंशविज्ञान और समाजशास्त्रीय दृष्टिकोणों का उपयोग करते हुए,
जाति के ऐतिहासिक विकास, सामाजिक गतिशीलता और
आधुनिक भारत में इसके निरंतर प्रभाव के बारे में महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टि प्रदान की
है ।
12. विविधता में एकता
12. चार
कर्तव्य
भारतीय
दृष्टि मानती है- अपने कर्तव्यों को पूरा करके, व्यक्ति भौतिक सुख-सुविधाओं
में रहते हुए भी धर्म का पालन कर सकता है और इस तरह भी मोक्ष प्राप्त कर सकता है ।
कर्तव्यों को पूरा करना भारतीय-संस्कृति की एक खासियत है । इसमें
व्यक्ति के जीवन में चार कर्तव्य माने गए हैं- धर्म, अर्थ,
काम और मोक्ष । धर्म का संबंध नैतिक कर्तव्यों की पूर्ति से है धन
का संबंध भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति से । काम, शारीरिक-सुख पाने का नहीं, वंश-परंपरा को आगे ले जाने का धार्मिक माध्यम भर है । मोक्ष अंतिम लक्ष्य
है । ये कर्तव्य व्यक्ति को अपने दायित्वों
को पूरा करने और समाज में अनुशासित तरीके
से रहने की प्रेरणा देते हैं ।
13. अलग-अलग तरह की
एकता
संसार
में बहुत कम देश हैं जिनमें भारत जैसी सांस्कृतिक
विविधता हो । इस बड़े देश के धर्म, भाषा और रीति-रिवाजों की
हैरान करने वाली विविधता के नीचे, अंदरूनी एकता कमाल की है । जानकारों का मानना है कि एकता का विचार बहुत प्राचीन है । ऋग्वेद में अनेक मन्त्र इस आशय के हैं....ब्रिटिश
राज के दौरान प्रशासनिक एकता से और आज़ादी के बाद भारत के एक आधुनिक आज़ाद
देश बनने से यहाँ की अंदरूनी सांस्कृतिक एकता
और मज़बूत हुई है । ऐसा लगता है जैसे
उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक, और
पश्चिम में कच्छ से लेकर पूर्व में अरुणाचल तक के लोग एक ही खूबसूरत ताने-बाने में
बुने हुए हैं । अपने विकास की प्रक्रिया में, भारतीय समाज ने
एक ऐसी सामासिक-संस्कृति हासिल की है
जिसकी खासियत कई तरह के लोगों का ‘स्थिर’ पैटर्न है ।
यूरोपियन
समाजशास्त्र भाषाई राष्ट्रीयता या
राजनीतिक संप्रभुता के प्रसंग में समाज में एकता की कल्पना करती है। , कई भारतीय समाजशास्त्रियों के अनुसार, भारत और पूरे
दक्षिण एशिया में एकता की भावना असल में यहाँ की संस्कृति ही है, जो पुराने समय से चली
आ रही है और आज भी जारी है । परिवार,
जाति और जीवन-शैली जैसी सामाजिक संस्थाओं के मामले में दक्षिण एशिया
के अलग-अलग समाजों और देशों में एक बुनियादी एकता है । हम
भारत
की पहली खास बात इसकी भौगोलिक और जनसंख्यात्मक विविधता है, क्योंकि भारत का भूगोल ही विविधता से भरा है । संसार की आबादी के
संदर्भ में भारत का प्रतिशत लगभग 17.5% से 17.7% के बीच है, जो
इसे दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश बनाता है ! उत्तर से दक्षिण और पूरब से
पश्चिम तक फैले इस बड़े इलाके में बहुत से दूसरे मुल्कों की तरह का भौगोलिक एकसापन नहीं है । भारत ग्रेट ब्रिटेन से लगभग चौदह गुना और
पूरे ब्रिटिश आइल्स के आकार से दस गुना से
भी ज़्यादा बड़ा है । यहाँ तापमान में अगर
किसी भाग में बहुत ज़्यादा गर्मी है तो कहीं बहुत ज़्यादा ठंड भी । भारत में तीन तरह की सम शीतोष्ण , उष्ण
कटिबंधीय और ध्रुवीय जलवायु हैं । आबादी के शारीरिक रंग-रूप के मामले में
यहाँ भी बड़ी विविधता है । हालाँकि,
भूगोल ने भारतीय एकता और भारतीयता की भावना को जगाने
में एक अहम भूमिका निभाई है क्यों कि उत्तर में ताकतवर हिमालय और तीनों तरफ महासागरों से घिरे भारत की
बाकी एशिया से अलग एक विशिष्ट
भौगोलिक पहचान बनी हुई है । इसके प्राकृतिक संसाधन अनेक हैं और
कई तो विलक्षण हैं । भारत के विलक्षण प्राकृतिक संसाधनों में विशाल कोयला और लौह
अयस्क भंडार, दुनिया के सबसे उपजाऊ जलोढ़ मिट्टी के मैदान,
प्रचुर मात्रा में जल संसाधन (नदियों और वर्षा जल), विविध वनस्पतियां और जीव-जंतु, और महत्वपूर्ण खनिज
जैसे अभ्रक, बॉक्साइट, मैंगनीज,
क्रोमाइट, और लीथियम शामिल हैं, जो देश की आर्थिक और पारिस्थितिक-विविधता को दर्शाते हैं। भारत ने भूगोलिक
विभिन्न्ताओं के बावजूद लगभग चार या पाँच हज़ार सालों से अपने कृषि-अर्थव्यवस्था
को लगातार विससित किया है । भारत कई फसलों में विश्व का सबसे बड़ा
उत्पादक है, जिनमें मुख्य रूप से दूध, दालें
(जैसे चना, मसूर), जूट, अदरक, केला और कुछ मसाले (जैसे हल्दी, मिर्च) शामिल हैं; वहीं चावल, गेहूं,
गन्ना, मूंगफली, सब्जियां
और फल उत्पादन में भारत विश्व में दूसरे स्थान पर है । कृषि के साथ ही गांवों में एक
खास कृषि-संस्कृति भी विकसित हुई जैसे समय के साथ भारत में विभिन्न मान्यताओं वाले
अनगिनत धार्मिक स्थलों और पवित्र जगहों का एक नेटवर्क विकसित हुआ है जो पूरे देश
के लोगों को आपस में जोड़ने का एक माध्यम है ।
धार्मिक कारण
क्रिसमस
और ईद-उल-फितर क्रमश: ईसाई और मुस्लिम समुदाय मनाते हैं । अलग-अलग समयों में कबीर, अकबर,
दारा शिकोह और महात्मा गांधी जैसे व्यक्तित्वों ने भारत में अलग-अलग
धार्मिक समुदायों के बीच वैचारिक समन्वय बनाने में अहम भूमिका निभाई । जैसे भारत में आ
कर फ़ारसी-सूफ़ीवाद ने एक नया ही रंग ले लिया । रामानंद और कबीर जैसे कवियों और
धार्मिक गुरुओं ने हिंदू धर्म और इस्लाम दोनों की अच्छी बातों को मिलाने और बुरी
बातों की आलोचना की । अवध और हैदराबाद के दरबारों में कला, साहित्य,
भोजन आदि में अगर राजस्थान और फ़ारस के दरबारी रिवाज पहुंचे
तो मुसलमानों ने हिंदुओं से जातिप्रथा ग्रहण की और हिंदुओं ने मुसलमानों से पर्दाप्रथा अंगीकार की ।
गुरु ग्रंथ साहिब सिख धर्म का सबसे पवित्र
और केंद्रीय धर्मग्रंथ है, जिसे सिखों का 'जीवित' और अंतिम गुरु माना जाता है; इसमें सिख गुरुओं के साथ-साथ अन्य हिंदू और मुस्लिम संतों की शिक्षाएँ,
श्लोक और भजन गुरमुखी लिपि में संकलित हैं, जो
सभी धर्मों के लोगों को समानता और प्रेम का संदेश देते हैं और सिख धर्म के
आध्यात्मिक मार्गदर्शन का आधार हैं. इसमें
सिख गुरुओं (गुरु नानक देव जी, गुरु अंगद देव जी, आदि)
की रचनाओं के साथ-साथ कबीर, रविदास, नामदेव,
शेख फरीद, जयदेव जैसे कई अन्य संतों और भक्तों
की वाणी भी शामिल है, जो इसे एक सार्वभौमिक ग्रंथ बनाती है.
सांस्कृतिक कारक
भारतीय-संस्कृति
की कहानी निरंतरता (कंटिन्यूटी), समन्वय (सिंथेसिस) और समृद्धिकरण (एनरिचमेंट) की कहानी है । संस्कृति भी धर्म की तरह एकता और विविधताओं
का स्रोत है । मौर्य और गुप्त जैसे ताकतवर राज्यों और
साम्राज्यों ने कभी जनता के सामाजिक और सांस्कृतिक मामलों में कोई खास दखल नहीं दिया; जिससे बहुत
सारी सांस्कृतिक विविधता बनी रही । इसी तरह हालांकि इस्लाम कई सदियों तक देश के
बड़े हिस्सों में राजनैतिक रूप से स्थापित राजधर्म था, लेकिन
इसने हिंदू-समाज की सामाजिक-संरचनाओं को नहीं बदला । न ही हिंदू धर्म ने (जो जनसंख्यात्मकता के लिहाज़ से सबसे बड़ा था),
दूसरे धर्मों की खासियतों
और मान्यताओं को ‘खत्म’ करने की कोशिश की ।
हिंदू, मुस्लिम
और ईसाई, सभी अलग-अलग मान्यताओं और प्रथाओं को मानते और बनाए
रखते आये हैं । समय के साथ भारतीय समाज अनगिनत कबीलों, जातियों,
उपजातियों, कुलों, पंथों
और समुदायों में बंटता गया है, जिनमें से हर कोई अपनी जीवन-शैली
और आचार-संहिता बनाए रखना चाहता है ।
एकता लाने में भारतीय धर्म, दर्शन,
कला और साहित्य की अपनी भूमिका
है । पूरे भारत में त्योहारों को लगभग एक ही तरह के उत्साह से मनाया जाता है। इसी तरह, पूरे
भारत में मंदिरों पर उकेरी गई कलाकृतियों
ने विभिन्न संस्कृतियों के बीच आकर्षण और एकता की भावना पैदा की है । जाति-व्यवस्था और
संयुक्त परिवार प्रणाली जैसी सामाजिक संस्थाएं, जो पूरे देश
में हैं, बुनियादी रूप से भारतीय उपज हैं ।
राजनैतिक कारण
एक
तरह से,
भारत कभी भी किसी एक सरकार
के तहत एक सुगठित राजनैतिक-इकाई नहीं रहा
है । ब्रिटिश शासन काल में भारत में छोटे-बड़े
लगभग 600 अलग-अलग और आज़ाद राज्य थे –प्रशासनिक / राजनैतिक दृष्टि से ये स्वायत्त
थे इसलिए ब्रिटिश सरकार ने पूरे भारत में रक्षा,
बाहरी रिश्तों, विदेश नीति और कुछ आर्थिक
मामलों में केन्द्रीय सत्ता के अधीन ‘राजनैतिक-एकता’ बनाने की कोशिश की । आज़ादी के बाद भारत दो टुकड़े हो जाने के बावजूद राजनैतिक
और प्रशासनिक तौर पर एक है जो मुख्यतः ब्रिटिश
राज की संवैधानिक विरासत से बना है । देश आज राजनैतिक और प्रशासनिक तौर पर एक है
लेकिन राज्यों की अलग अलग सरकारें अलग-अलग राजनैतिक पार्टियां और अलग-अलग राजनैतिक विचारधाराएँ यहाँ की राजनैतिक विविधता को
दर्शाती हैं ।
भारत
एक बहुभाषी देश है। सांस्कृतिक विविधता के
साथ-साथ भाषा, एकता का एक और स्रोत है। भाषा अगर किसी क्षेत्र विशेष की सामूहिक
पहचान है तो दूसरी तरफ कई बार भाषाई
विविधता आपसी राजनैतिक विवादों को जन्म भी
देती आयी है। भारतीय संविधान की आठवीं
अनुसूची में अठारह भारतीय भाषाओं को मान्यता दी गई है पर तथ्य यह
भी है- सभी बड़ी भाषाओं में क्षेत्रीय और भाषाई
भिन्नताएं भी हैं, जैसे, हिंदी में अवधी, ब्रज, भोजपुरी,
मगधी, बुंदेली, पहाड़ी,
और मालवी, उड़िया भाषा में संबलपुरी और कई
दूसरी बोलियां हैं । स्थिति और भी मुश्किल है क्योंकि भारत में 179 भाषाओं और 544
बोलियों को भी मान्यता दी गई है । इन भाषाओं और बोलियों को तीन भाषा-परिवारों
में बांटा गया है: इंडो-आर्यन, द्रविड़ियन और मुंडारी ।
इंडो-आर्यन
भाषा परिवार में संस्कृत और दूसरी उत्तर भारतीय भाषाएं जैसे हिंदी, बंगाली,
उड़िया, मराठी, गुजराती,
पंजाबी, उर्दू, वगैरह और
उनकी बोलियां शामिल हैं । द्रविड़ भाषा-परिवार में तमिल, तेलुगु,
कन्नड़ और मलयालम हैं। जब
कि मुंडारी ग्रुप की भाषाएँ और बोलियाँ भारत के विशाल आदिवासी समुदायों में बोली जाती
हैं । आदिवासी बोलियाँ (Tribal dialects) भारत की मूल
जनजातियों द्वारा बोली जाने वाली भाषाएँ हैं, जो मुख्य रूप
से आस्ट्रिक, द्रविड़, गोंडी और कुछ
भारोपीय-भाषा-परिवारों से संबंधित हैं, जिनमें भीली, गोंडी और संथाली सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली प्रमुख बोलियाँ हैं, और ये भाषाई विविधता का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं । मध्यकाल के दौरान फ़ारसी, अरबी
और उर्दू भारत की जनभाषाएँ थीं । उर्दू भारत में हिंदी के साथ लगभग उसी समय विकसित
हुई जब ‘हिंदुस्तानी’ विकसित हुई । उर्दू और हिंदी का विकास लगभग एक ही समय में
हुआ, जो दिल्ली और आसपास बोली जाने वाली 'खड़ी बोली' नामक एक सामान्य भाषा 'हिंदुस्तानी' से हुआ, जिसमें
समय के साथ फ़ारसी/अरबी (उर्दू में ज़्यादा) और संस्कृत (हिंदी में ज़्यादा) के
शब्दों का प्रभाव बढ़ा, जिससे 18वीं-19वीं सदी तक दोनों
अलग-अलग भाषाएँ बन गईं लेकिन मूल रूप से एक ही थीं और परस्पर समझी जा सकती थीं । हिंदी
का विकास संस्कृत, पालि और प्राकृत से होते हुए अपभ्रंश
(मुख्यतः शौरसेनी अपभ्रंश) से हुआ है, जिसे आदिकाल
(1000-1500 ई.) में ‘पुरानी हिंदी’ कहा गया, फिर मध्यकाल में
ब्रज और अवधी का प्रभाव रहा, और आधुनिक काल (19वीं सदी से)
में भारतेंदु हरिश्चंद्र जैसे साहित्यकारों के प्रयासों से खड़ी बोली ने मानक रूप
अपनाया और यह राष्ट्रभाषा व संपर्क-भाषा बनी, जो आज वैश्विक
स्तर पर भी फैल रही है... मुग़लकाल में संस्कृत, प्राकृत और
पाली की जगह अरबी और फ़ारसी राजभाषा और कोर्ट-कचहरी की भाषा बनीं । आज़ादी के बाद,
अंग्रेज़ी ने यह जगह ले ली । आज़ादी के बाद, हिंदी
को राष्ट्रभाषा तो बनाया गया लेकिन अंग्रेज़ी
केंद्र सरकार के कामकाज की और ज़्यादातर
न्यायालय की भाषा बनी रही । हालांकि भारत की भाषाओं और बोलियों में हैरान करने
वाली अलग-अलग तरह की बातें हैं, लेकिन इन भाषाओं में बताए गए
विचारों और थीम में बुनियादी एकता है । व्याकरण के स्तर पर कई भारतीय भाषाओँ में साम्य या एकता है । संस्कृत ने अपनी विशाल शब्द-सम्पदा के कारण भारत की ज़्यादातर
भाषाओं पर गहरा असर डाला है । संस्कृत को
हिंदी, बंगाली, मराठी, गुजराती, पंजाबी और नेपाली जैसी कई उत्तर भारतीय
भाषाओं के साथ-साथ कन्नड़ और तेलुगु जैसी कुछ दक्षिण भारतीय भाषाओं की
"मातृभाषा" या पूर्वज माना जाता है (हालांकि द्रविड़ भाषाओं की जड़ें कुछ
अलग हैं लेकिन उन पर संस्कृत का महत्वपूर्ण प्रभाव है)। प्राकृत से विकसित हुई संस्कृत,
इंडो-आर्यन परिवार की अधिकांश भाषाओं के लिए शब्दावली और व्याकरणिक संरचनाओं का
स्रोत है । बंगाली, मराठी, गुजराती जैसी इंडो-आर्यन भाषाओं की अधिकांश मूल शब्दावली और
संरचना, संस्कृत से ही ली गई है । द्रविड़
भाषाओं में भी आज अनेक शब्द संस्कृत के ही
हैं । फ़ारसी, अरबी और अंग्रेज़ी के शब्द आज भारतीय भाषाओं और बोलियों का हिस्सा बन गए
हैं । तालमेल की भावना, जिसने अलग-अलग जातीय समूहों को एक सामाजिक
व्यवस्था में एकजुट किया, भारत के साहित्य में दिखती है । मुख्य क्षेत्रीय भाषाएँ अपने-अपने प्रांतों में राजकाज
में और बोलचाल दोनों में इस्तेमाल होती हैं पर संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल
होने के ज़रिए उन्हें दूसरी राष्ट्रीय भाषाओं के तौर पर पहचान मिली है । देश की राजभाषा
है हिंदी, लेकिन अंग्रेज़ी ने अतिरिक्त राजभाषा के बतौर अपना रुतबा
और ग्लैमर बनाए रखा है ।
राष्ट्रीय एकता के
लिए भारतीय संविधान
समान
नागरिकता,
धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, मौलिक अधिकार, मौलिक कर्तव्य, एकीकृत
न्याय प्रणाली, और संघीय संरचना जैसे कई तत्वों को बढ़ावा
देता है, जो सभी नागरिकों में समानता, न्याय,
बंधुत्व और विविधता में एकता की भावना पैदा करते हैं, जिससे देश की संप्रभुता और अखंडता सुनिश्चित होती है।
संविधान के प्रमुख
प्रावधान:
मौलिक
अधिकार: अनुच्छेद 12-35 तक सभी नागरिकों को स्वतंत्रता, समानता, और धार्मिक स्वतंत्रता जैसे अधिकार दिए गए हैं, जो
भेदभाव को खत्म करते हैं।
मौलिक
कर्तव्य: अनुच्छेद 51A
के तहत संप्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा
करना हर नागरिक का कर्तव्य है, जो राष्ट्रीय भावना को मजबूत
करता है।
धर्मनिरपेक्षता
और समानता: संविधान सभी धर्मों के प्रति समान सम्मान और सभी नागरिकों के लिए समान
अधिकारों की गारंटी देता है।
एकीकृत
न्याय प्रणाली: पूरे देश में एक समान कानून और अदालतें एकता की भावना पैदा करती
हैं।
संघीय
ढाँचा: केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का बंटवारा है, लेकिन
राष्ट्रीय एकता के लिए एक मजबूत केंद्र की व्यवस्था की गई है।
समान
नागरिकता: पूरे भारत के लिए एक ही नागरिकता का प्रावधान है, जिससे
क्षेत्रीय पहचान से ऊपर राष्ट्रीय पहचान बनती है।
राज्यों
का प्रतिनिधित्व: राज्यसभा के माध्यम से राज्यों के हितों का राष्ट्रीय स्तर पर
प्रतिनिधित्व होता है।
राष्ट्रीय प्रतीक और त्यौहार:
राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रगान, और
राष्ट्रीय त्यौहार देशवासियों में एकता की भावना जगाते हैं।
खेल
और सिनेमा: क्रिकेट और बॉलीवुड जैसे माध्यम पूरे देश को एक साथ जोड़ते हैं। शिक्षा:
शिक्षा प्रणाली में एकरूपता और आधुनिक शिक्षा राष्ट्रीय एकता के लिए महत्वपूर्ण
है। इन संवैधानिक और सामाजिक तत्वों के
माध्यम से भारत अपनी विविधता में एकता को बनाए रखता है और राष्ट्रीय पहचान को
मजबूत करता है।
आधुनिक चुनौतियाँ :
भारत
की संस्कृति पर बड़े ‘खतरों’ में जो मुख्य कारण माने जा रहे हैं वे हैं- वैश्वीकरण
और पाश्चात्य-संस्कृति का अंधानुकरण । युवाओं
का अपनी जाति, धर्म और संप्रदाय के सांस्कृतिक-इतिहास को जानने के प्रति घोर विरक्ति-भाव आज प्रबल है, भाषा,
वेशभूषा, खानपान, संगीत और अभिरुचियों में विदेशी नक़ल की प्रवृत्ति आम है, आस्तिकता
/ धार्मिकता की अपनी जड़ों से दूरी बनाना आधुनिक होना या प्रतिगामी होना माना जाने लगा है , दिनों दिन पारंपरिक-मूल्य
(जैसे संयुक्त-परिवार, स्थानीय भाषाएँ, रीति-रिवाज, वार-त्यौहार, सजातीय-विवाह) कमजोर पड़
रहे हैं, आधुनिकता के नाम पर ‘पहचान की राजनीति’ और बढ़ती हुई
सांप्रदायिकता दूसरे खतरे हैं, प्राकृतिक संसाधनों का प्रदूषण और उनकी रख रखाव के प्रति उपेक्षा भारत
की सांस्कृतिक-विविधता की पहचान के लिए चुनौतियाँ हैं । शहरीकरण की वजह से गांवों
से शहरों की ओर पलायन एक जनसंख्यात्मक सचाई है , जिससे
ग्रामीण जीवनशैली और पैतृक परंपराओं से दूरी बढ़ रही है । जैसा ऊपर लिखा ही जा
चुका है- पश्चिमीकरण पश्चिमी पहनावे,
खान-पान और जीवनशैली को अपनाना, जिस से
पारंपरिक भारतीय वेशभूषा और खान-पान की उपेक्षा हो रही है ।संयुक्त परिवार का टूटने से संस्कार
और परंपराओं का हस्तांतरण कमजोर हो रहा है, क्योंकि बच्चे ‘आदर्श’
बड़ों को नहीं देख पाते । इंटरनेट , सिनेमा
आदि माध्यमों से समाज में अश्लीलता और
हिंसा का बढ़ना और अपराधों में वृद्धि होना भी संस्कृति के लिए क्षोभकारी है । स्कूलों
में नैतिक शिक्षा की किताबों के गायब होने
से बचपन से पड़ने वाले संस्कार गम हो रहे हैं
सार्वजनिक जीवन से नैतिकता गिर रही है । पूजा-पाठ, उपवास
और धार्मिक अनुष्ठानों के प्रति उदासीनता ने परंपरा के अनुरक्षण को प्रभावित किया
है । स्थानीय भाषाओं और कलाओं की उपेक्षा भी एक और तथ्य है । कुछ लोगों का मानना
है आर्थिक ज़रूरतें लोगों को सांस्कृतिक आदर्शों से दूर कर रही हैं । त्योहारी
सामानों और अन्य उत्पादों में विदेशी वस्तुओं का वर्चस्व बढ़ा है । तेजी से बदलते परिवेश में अपनी पहचान को
बनाए रखने की चुनौती आज प्रमुख है ।
********
हेमंत शेष
501, ‘हैवन्स टेरेसेज़’
6-डी इन्जीनियर्स कॉलोनी
स्वर्ण पथ साउथ, मानसरोवर, जयपुर 302020
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